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अक्तूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कालभैरव साधना विधि और नाम / kaal bhairav sadhna

  श्री कालभैरवाष्टमी सर्वश्रेष्ठ है यह साधना करने के लिए  दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं श्री भैरव। श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं- 1. असितांग भैरव, 2. चंड भैरव, 3. रूरू भैरव, 4. क्रोध भैरव, 5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाल भैरव, 7. भीषण भैरव 8. संहार भैरव। क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है। श्री भैरव से काल भी भयभीत रहता है अत: उनका एक रूप'काल भैरव'के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें"आमर्दक"कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार,

श्री दुर्गा सप्तशती ॥ उपसंहार || by geetapress gorakhpur

 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ उपसंहारः इस प्रकार सप्तशती का पाठ पूरा होने पर पहले नवार्णजप करके फिर देवीसूक्त के पाठ का विधान है ; अतः यहाँ भी नवार्ण-विधि उद्धृत की जाती है। सब कार्य पहले की ही भाँति होंगे। ॥विनियोगः॥ श्रीगणपतिर्जयति। ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः। ॥ऋष्यादिन्यासः॥ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि। गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे। महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि। ऐं बीजाय नमः, गुह्ये। ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः। क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ। "ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" - इति मूलेन करौ संशोध्य- ॥करन्यासः॥ ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः। ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। ॥हृदयादिन्यासः॥ ॐ ऐं हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ

संतोषी माता व्रत विधि और लाभ || Santoshi mata vrat vidhi or katha ||

  संतोषी माता व्रत विधि और लाभ  शुक्रवार का व्रत तीन तरह से किया जाता है। इस दिन भगवान शुक्र के साथ-साथ संतोषी माता तथा वैभवलक्ष्मी देवी का भी पूजन किया जाता है। तीनों व्रतों की विधियां अलग-अलग हैं। जो स्त्री-पुरुष शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत करते हैं, उनके लिए व्रत-विधि इस प्रकार है।   संतोषी माता व्रत विधि  सूर्योदय से पूर्व उठें। घर की सफाई कर स्नानादि से निवृत्त हो जाएं। घर के ही किसी पवित्र स्थान पर संतोषी माता की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। संपूर्ण पूजन सामग्री तथा किसी बड़े पात्र में शुद्ध जल भरकर रखें। जल भरे पात्र पर गुड़ और चने से भरकर दूसरा पात्र रखें। संतोषी माता की विधि-विधान से पूजा करें। इसके पश्चात संतोषी माता की कथा सुनें। तत्पश्चात आरती कर सभी को गुड़-चने का प्रसाद बांटें। अंत में बड़े पात्र में भरे जल को घर में जगह-जगह छिड़क दें तथा शेष जल को तुलसी के पौधे में डाल दें। इसी प्रकार 16 शुक्रवार का नियमित उपवास रखें। अंतिम शुक्रवार को व्रत का विसर्जन करें। विसर्जन के दिन उपरोक्त विधि से संतोषी माता की पूजा कर 8 बालकों को खीर-पुरी का भोजन कराएँ तथा दक्षिणा व केले का

दुर्गा सप्तशती पाठ 13 त्रयोदश अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

  ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ त्रयोदशोऽध्यायः सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान ॥ध्यानम्॥ ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाङ्‌कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥ जो उदयकाल के सुर्यमण्डलकी - सी कान्ति धारण करनेवाली हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं तथा जो अपने हाथों में पाश, अंकुश, वर एवं अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं, उन शिवादेवी का मैं ध्यान करता हूँ । "ॐ" ऋषिरुवाच॥१॥ एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्। एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥ ऋषि कहते हैं- ॥१॥ राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे देवी के उत्तम महात्म्य का वर्णन किया। जो इस जगत् को धारण करती हैं, उन देवीका ऐसा ही प्रभाव है ॥२॥ विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया। तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥ मोह्यन्ते मोहिताश्चै‍व मोहमेष्यन्ति चापरे। तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥४॥ आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥ वे ही विद्या (ज्ञान ) उत्पन्न करती हैं । भगवान् विष्णु की मायास्वरूपा उन भगवती के द्वारा ही तुम, ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन मोहित होते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होंग

दुर्गा सप्तशती पाठ 12 द्वादश अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

  ।। श्री दुर्गा सप्तशती ॥ द्वादशोऽध्यायः देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म् ॥ध्यानम्॥ ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्। हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥ मैं तीन नेत्रोंवाली दुर्गादेवी का ध्यान करता हूँ, उनके श्रीअंगों की प्रभा बिजली के समान है । वे सिंह के कंधेपर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती हैं । हाथों में तलवार और ढ़ाल लिये अनेक कन्याएँ उनकी सेवा में खड़ी हैं ।वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार, ढ़ाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं । उनका स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करती हैं । "ॐ" देव्युवाच॥१॥ एभिः स्तवैश्च् मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः। तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्*॥२॥ देवी बोली- ॥१॥ देवताओं ! जो एकाग्रचित होकर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा स्तवन करेगा, उसकी सारी बाधा निश्चय हीं दूर कर दूँगी ॥२॥ मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम्। कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥३॥ जो मधुकैटभ का नाश, महिषा

दुर्गा सप्तशती पाठ 11 एकादश अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

  ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ एकादशोऽध्यायः देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान ॥ध्यानम्॥ ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्‌गकुचां नयनत्रययुक्ताम्। स्मेरमुखीं वरदाङ्‌कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥ मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूँ । उनके श्रीअंगों की आभा प्रभात काल के सुर्य के समान है और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है । वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रों से युक्त हैं । उनके मुख पर मुस्कान की छटा छायी रहती है और हाथों में वरद, अंकुश, पाश एवं अभय - मुद्रा शोभा पाते हैं । "ॐ" ऋषिरुवाच॥१॥ देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्। कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्* विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः*॥२॥ ऋषि कहते हैं - ॥१॥ देवी के द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता अग्नि को आगे करके उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे । उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने से उनके मुख कमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं ॥२॥ देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वंक त्वमीश्व

दुर्गा सप्तशती पाठ 10 दशम अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ दशमोऽध्यायः शुम्भ-वध ॥ध्यानम्॥ ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि- नेत्रां धनुश्शरयुताङ्‌कुशपाशशूलम्। रम्यैर्भुजैश्चर दधतीं शिवशक्तिरूपां कामेश्वभरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥ मैं मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाली शिवशक्ति स्वरूपा भगवती कामेश्वरी का हृदयमें चिन्तन करता हूँ । वे तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर हैं । सुर्य, चन्द्रमा और अग्नि - ये ही तीन उनके नेत्र हैं तथा वे अपने मनोहर हाथों में धनुष - बाण, अंकुश, पाश और शूल धारण किये हुए हैं । "ॐ" ऋषिरुवाच॥१॥ निशुम्भं निहतं दृष्ट्‌वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्। हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः॥२॥ ऋषि कहते हैं- ॥१॥ राजन् ! अपने प्राणों के समान प्यारे भाई निशुम्भ को मारा गया देख तथा सारी सेना का संहार होता जान शुम्भ कुपित होकर कहा- ॥२॥ बलावलेपाद्दुष्टे* त्वं मा दुर्गे गर्वमावह। अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥ ‘दुष्ट दुर्गे ! तू बल के अभिमान में झूठ - मूठ का घमंड न दिखा । तू बड़ी मानिनी बनी हुई है, किंतु दूसरी स्त्रियों के बल का सहारा लेकर लड़ती है ’ ॥ ३॥ देव्युवाच॥४॥ एकैवाहं जगत्यत्र

दुर्गा सप्तशती पाठ 9 नवम अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

  ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ नवमोऽध्यायः निशुम्भ-वध ॥ध्यानम्॥ ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः। बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र- मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥ मैं अर्धनारीश्वर के श्रीविग्रह की निरन्तर शरण लेता हूँ । उसका वर्ण बंधूक पुष्प और सुवर्ण के समान रक्त - पीतमिश्रित है। वह अपनी भुजाओं में सुन्दर अक्षमाला, पाश, अंकुश और वरद - मुद्रा धारण करता है ; अर्धचन्द्र उसका आभूषण है तथा वह तीन नेत्रों से सुशोभित है । "ॐ" राजोवाच॥१॥ विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम। देव्याश्चदरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥२॥ राजा ने कहा- ॥१॥ भगवन् ! आपने रक्तबीज के वध से सम्बन्ध रखनेवाला देवी - चरित्र का यह अद्भूत महात्म्य मुझे बतलाया ॥२॥ भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते। चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः॥३॥ अब रक्तबीज के मारे जाने पर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए शुम्भ और निशुम्भ ने जो कर्म किया, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ३॥ ऋषिरुवाच॥४॥ चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते। शुम्भासुरो निशुम्भश्चे हतेष्वन्येषु चाहवे॥५॥ ऋषि कहते हैं - ॥४॥ राजन् ! युद्ध में रक

दुर्गा सप्तशती पाठ 8 अष्टम अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ अष्टमोऽध्यायः रक्तबीज-वध ॥ध्यानम्॥ ॐ अरुणां करुणातरङ्‌गिताक्षीं धृतपाशाङ्‌कुशबाणचापहस्ताम्। अणिमादिभिरावृतां मयूखै- रहमित्येव विभावये भवानीम्॥ मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ । उनके शरीर का रंग लाल है, नेत्रों में करूणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं । "ॐ" ऋषिरुवाच॥१॥ चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते। बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥२॥ ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्। उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥३॥ ऋषि कहते हैं - ॥१॥ चण्ड और मुण्ड नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत - सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के राजा प्रतापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये कूच करने की आज्ञा दी ॥२ - ३॥ अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः। कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥४॥ वह बोला- ‘आज उदायुध नामके छियासी दैत्य-सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान करें । कम्बु नामवाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी