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कालभैरव साधना विधि और नाम / kaal bhairav sadhna

  श्री कालभैरवाष्टमी सर्वश्रेष्ठ है यह साधना करने के लिए  दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं श्री भैरव। श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं- 1. असितांग भैरव, 2. चंड भैरव, 3. रूरू भैरव, 4. क्रोध भैरव, 5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाल भैरव, 7. भीषण भैरव 8. संहार भैरव। क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है। श्री भैरव से काल भी भयभीत रहता है अत: उनका एक रूप'काल भैरव'के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें"आमर्दक"कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार,...

रुद्र चण्डी कवचम् || श्रीरुद्रचण्डी कवचम् ||

 ।। श्रीरुद्रचण्डी कवचम् ।।            पूर्वपीठिका- श्रीकार्तिकेय उवाच- कवचं चण्डिकादेव्याः श्रोतुमिच्छामि ते शिव! । यदि तेऽस्ति कृपा नाथ! कथयस्व जगत्प्रभो ! ।। श्रीशिव उवाच- श‍ृणु वत्स  प्रवक्ष्यामि चण्डिकाकवचम् शुभम्। भुक्तिमुक्तिप्रदातारमायुष्यं सर्वकामदम्।। दुर्लभं सर्वदेवानां सर्वपापनिवारणम्। मन्त्रसिद्धिकरं  पुंसां ज्ञानसिद्धिकरं  परम्।। विनियोगः - श्रीरुद्र चण्डिकाकवचस्य श्रीभैरव ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीचण्डिका देवता, चतुर्वर्गफलप्राप्त्यर्थं पाठे विनियोगः।। ऋष्यादि न्यासः - श्रीभैरव ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे। श्रीचण्डिकादेवतायै नमः हृदि। चतुर्वर्गफलप्राप्त्यर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।।         अथ  कवचस्तोत्रम्- चण्डिका मेऽग्रतः पातु आग्नेय्यां भवसुन्दरी। याम्यां पातु महादेवी नैरृत्यां पातु पार्वती।। वारुणे चण्डिका पातु चामुण्डा पातु वायवे। उत्तरे भैरवी पातु ईशाने पातु शङ्करी।। पूर्वे पातु शिवा  देवी ऊर्ध्वे पातु महेश्वरी। अधः पातु सदाऽनन्ता मूलाधार निवासिनी।। मूर्ध्नि पातु महा...

गुरु अष्टावक्र की कथा || अष्टावक्र की कथा ||

 ।। गुरु अष्टावक्र की कथा ।। अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के ही आश्रम में रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पण्डित थे। वे रोज रातभर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे।  उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ से बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, हे पिता  "आप रातभर वेद पढ़ते रहते हैं। लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।’’  गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ ? सत्य स्वयं में है। ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्मे गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया। बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से...