https://www.sambhooblog.in/?m=1 भज गोविन्द स्तुति आदि गुरु श्री शंकराचार्य विरचित सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कालभैरव साधना विधि और नाम / kaal bhairav sadhna

  श्री कालभैरवाष्टमी सर्वश्रेष्ठ है यह साधना करने के लिए  दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं श्री भैरव। श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं- 1. असितांग भैरव, 2. चंड भैरव, 3. रूरू भैरव, 4. क्रोध भैरव, 5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाल भैरव, 7. भीषण भैरव 8. संहार भैरव। क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है। श्री भैरव से काल भी भयभीत रहता है अत: उनका एक रूप'काल भैरव'के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें"आमर्दक"कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार,...

भज गोविन्द स्तुति आदि गुरु श्री शंकराचार्य विरचित

भज गोविन्द स्तुति आदि गुरु श्री शंकराचार्य विरचित


भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते ।
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥ १ ॥


भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
कलवित काल करे जेहि काले, नियम व्याकरण, क्या करते?
भज गोविन्दम भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१॥

मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम् ।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ २ ॥

माया जोड़े, काया तोड़े, ढेर लगा कब सुख मिलते,
जो भी करम किये थे पहले, उनके ही फल अब फलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥२॥

नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्वा मागामोहावेशम् ।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥ ३ ॥

नारी तन, मोहित मन मोहा, अंदर माँस नहीं दिखते,
बार-बार सोचो मन मूरख, हाड़ माँस पर क्यूँ बिकते.
भज गोविन्दम , भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥३॥

नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥ ४ ॥

कमल पात, जल बिंदु न रुकते, अस्थिर, दूजे पल बहते,
अहम् ग्रसित अस्थिर संसारा , रोग, शोक, दुःख संग रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥४॥

यावद्वित्तोपार्जन सक्तः स्तावन्निज परिवारो रक्तः ।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥ ५ ॥

धन अर्जन की क्षमता जबतक, घर परिवार सलग रहते,
जर्जर देह कोई ना पूछे, ना कोई बात, अलग रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥५॥

यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥ ६ ॥

जब तक प्राण देह में रहते, घर परिवार लिपट रहते,
प्राण वायु के गमन तदन्तर, वे कब कहाँ निकट रहते?
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥६॥

बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥ ७ ॥

बाल काल बहु खेल खिलौने, युवा काल नारी रमते,
वृद्ध, रोग, दुःख, क्लेश अनेका, परम ब्रह्म को ना भजते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥७॥

काते कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।
कस्य त्वं कः कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥ ८ ॥

को सुत, कन्त, भार्या, बन्धु, झूठे सब नाते छलते,
जगत रीत अद्भुत, तू किसका, कौन, कहाँ, आये, चलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥८॥

सत्सङ्गत्वे निस्स्ङ्गत्वं निस्सङ्गत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥ ९ 

सत-संगति से निरासक्त मन, मोह चक्र में ना फँसते,
निर्मोही मन जीवन मुक्ति, पथ निर्बाध चलें हँसते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥९॥

वयसिगते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
क्षीणेवित्ते कः परिवारः ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥ १० ॥

काम गया यौवन के संगा, नीर सूख नद ना कहते.
धन विहीन परिवार न संगा, जानो जग इसको कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१०॥

मा कुरु धन जन यौवन गर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम् ।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥ ११ ॥

धन, यौवन, मद सब निःसारा, छिनत ना काल निमिष लगते,
मायामय अखिलं संसारा, ब्रह्म ज्ञान परमं लभते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥११॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥ १२ ॥

प्रातः सायं, दिवस और रैना, शिशिर, बसन्ती ऋतु रुचते,
काल प्रभंजन के तिनके , पर वेग चाह के ना रुकते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१२॥

यह बारह काव्य सूत्र ही विशेष रूप से प्रचलित हैं और गायन में बहुत ही प्रसिद्ध हैं।
शेष काव्य सूत्र

काते कान्ता धन गतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता ।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ १३ ॥

धन पत्नी की चिंता त्यागो, नियति नियंता ही करते,
तीन लोक सत्संग सहायक, जिनसे भव सागर तरते.
भज गोविन्दम , भज गोविन्दम गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि चन पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥ १४ ॥

मुंडन, जटा, केश के लुंचन, भगवा विविध विधि धरते,
उदर निमितं करम पसारा, मूढ़ विलोकें, ना जगते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥१४॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जतं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥ १५ ॥

शिथिल अंग, सर केश विहीना, दंतहीन अब ना सजते,
वृद्ध तदपि आबद्ध विमोहा, सार हीन जग ना तजते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१५॥

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥ १६ ॥

उदर हेतु भिक्षान्न, तरु तल, सिकुड़ -सिकुड़ बैठा करते.
शीत- ताप सह अपितु, भावना के इंगित नाचा करते.
भज गोविन्दम, भजगोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१६॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥ १७ ॥

दान, पुण्य, व्रत, विविध प्रकारा, गंगा सागर तक चलते.
पर बिन ज्ञान कदापि न मुक्ति, जनम शतं मिटते मिलते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१७॥

सुर मंदिर तरु मूल निवासः शय्या भूतल मजिनं वासः ।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥ १८ ॥


सुर मंदिर तरु मूल निवासा, शैय्या भूतल में करते,
सकल परिग्रह, भोग, त्याग, पर भाव विरागी से तरते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१८॥


योगरतो वाभोगरतोवा सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः ।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥ १९ ॥


योग रतो या भोग रतो या राग विरागों में रहते,
ब्रह्म रमा चित नन्दति-नन्दति, सतत ब्रह्म सुख में बहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१९॥

भगवद् गीता किञ्चिदधीता गङ्गा जललव कणिकापीता ।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥ २० ॥

भगवद गीता, किंचित अध्ययन, गंगा जल सेवन करते,
कृष्ण, वंदना वंदन कर्ता, कभी न यम से भी डरते.
भज गोविन्दम, भजगोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२०॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥

पुनरपि जनम, मरण पुनि जठरे, शयनं के क्रम दुःख सहते,
यह संसार जलधि दुस्तारा, श्री कृष्णं शरणम् महते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२१॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः ।
योगी योगनियोजित चित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव ॥ २२ ॥

लंबा चोगा पंथ बुहारे , क्या गुण-दोष शमन करते,
योगी योग नियोजित चित्तो, बालक सम ब्रह्मम रमते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२२॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥ २३ ॥

को तुम, को हम , कहाँ से आये, को पितु- मातु न कह सकते?
जगत असारा, स्वप्न पसारा, क्या स्वप्निल जग रह सकते?
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥२३॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥ २४ ॥

अणु-अणु कण-कण, तुझमें- मुझमें, विष्णु ब्रह्म मय ही रमते,
व्यर्थ, क्रोध, दुर्भाव, विकारा, भव शुभ चितः सम समते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२४॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥ २५ ॥

शत्रु, मित्र, सुत, बन्धु, बान्धवा, द्वेष दुलार परे करते,
अणु-कण कृष्णा! कृष्णा! कृष्णा! भेद विभावों से तरते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२५॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम् ।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥ २६ ॥

काम, क्रोध, मद, लोभ, विमोहा, त्याग स्वरूपं में बसते,
आत्म ज्ञान बिन जीव निगोधा, नरक निगोधा में धंसते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२६॥

गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥ २७ ॥

गेयं गीता , नाम सहस्त्रं , ध्येयं श्री श्री पति महते,
सज्जन संगा, चित्त प्रसन्ना, दीनन को धन दो कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२७॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥ २८ ॥

भोग पिपासा रत जिन लोगा, रोग शोक दारुण सहते,
नश्वर जगत तथापि मूढ़ा, सतत पाप के पथ गहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२८॥

अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्तिततः सुखलेशः सत्यम् ।
पुत्रादपि धन भाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिआ रीतिः ॥ २९ ॥

धन अम्बार न सुख का सारा , लेश न सुख इनमें बहते,
निज सुत से अपि होत भयातुर, धन की गति ऐसी कहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥२९॥

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम् ।
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥ ३० ॥

प्राणायामं, प्रत्याहारम, नित्य निरत रत सत महते,
भज गोविन्दम, शांत समाधि, समाधिस्थ मन चित रहते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥३०॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भकतः संसारादचिराद्भव मुक्तः ।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥ ३१ ॥

गुरु के चरण कमल नत वंदन, जिससे भव सागर तरते,
दत्त चित्त अनुशासित मन से, निज हिय प्रभु अनुभव करते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥३१॥


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दुर्गा सप्तशती पाठ 12 द्वादश अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

  ।। श्री दुर्गा सप्तशती ॥ द्वादशोऽध्यायः देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म् ॥ध्यानम्॥ ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्। हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥ मैं तीन नेत्रोंवाली दुर्गादेवी का ध्यान करता हूँ, उनके श्रीअंगों की प्रभा बिजली के समान है । वे सिंह के कंधेपर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती हैं । हाथों में तलवार और ढ़ाल लिये अनेक कन्याएँ उनकी सेवा में खड़ी हैं ।वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार, ढ़ाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं । उनका स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करती हैं । "ॐ" देव्युवाच॥१॥ एभिः स्तवैश्च् मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः। तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्*॥२॥ देवी बोली- ॥१॥ देवताओं ! जो एकाग्रचित होकर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा स्तवन करेगा, उसकी सारी बाधा निश्चय हीं दूर कर दूँगी ॥२॥ मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम्। कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥३॥ जो मधुकैटभ का नाश, महिषा...

हनुमान चालीसा और आरती, बजरंग बाण श्रीं राम स्तुति || hanuman Chalisa ||

Hanuman Chalisa or Aarti:  मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमान जी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है, इससे शनि जनित पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है, (चाहे शनि की ढैय्या हो या साढ़ेसाती) । इन दिनों में हनुमान जी के मंदिरों में जाकर भक्त हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं साथ ही इनका प्रिय बूंदी का प्रसाद चढ़ाते हैं। बजरंगबली को संकटमोचक भी कहा जाता है क्योंकि ये अपने भक्तों के सभी संकट दूर कर देते हैं। शास्त्रों और पुराणों अनुसार हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करके आरती करे और हनुमानजी को बूँदी का भोग लगाए. आइए शुरू करे हनुमान चालीसा का पाठ -    दोहा : श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।  बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार। बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।    चौपाई :   जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर।। रामदूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।     महाबीर बिक्रम बजरंग   कुमति निवार सुमति के संगी ।।   कंचन बरन बिराज सुबे...

दुर्गा सप्तशती पाठ 4 चतुर्थ अध्याय || by geetapress gorakhpur ||p

 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥ चतुर्थोऽध्यायः इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति ॥ध्यानम्॥ ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्। सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥ सिद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं, उन ‘जया ’ नामवाली दुर्गादेवी का ध्यान करे । उनके श्रीअंगों की आभा काले मेघ के समान श्याम है । वे अपने कटाक्षों से शत्रुसमूह को भय प्रदान करती हैं । उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है । वे अपने हाथों में शंख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं । उनके तीन नेत्र हैं । वे सिंह के कंधेपर चढ़ी हुई हैं और अपने तेज से तीनों लोकोंको परिपूर्ण कर रही हैं । "ॐ" ऋषिरुवाच*॥१॥ शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या। तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्‌गमचारुदेहाः॥२॥ ऋषि कहते हैं - ॥१॥ अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसक...