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|| हम बार बार बीमार क्यों होते हैं, कैसे जाने || क्या है रोग

रोग को  कैसे समझो... डॉक्टर के पास जा रहे हो......??? क्या ढूंढने.......?? अपनी बीमारी का इलाज खोजने ...... क्या कहेगा आपका बड़ा महंगा डॉक्टर...??? अनेक जांच करवाएगा,  आपकी बीमारी को एक अच्छा , औऱ बड़ा नाम देगा......... और आप खुश हो जायेगे की दवा अब चमत्कार करेगी, घरवाले भी आपको टाइम पर दवाएं देकर अपना सारा दायित्व निभाएंगे....... क्या आप बीमारी को समझते है...... बुखार आपका मित्र है जैसे ही कोई वायरस शरीर मे आता है, शरीर अपना तापमान बढा देता है, वह तापमान को बढाकर उस वायरस को मारना जाता है, लेकिन आप गोली देकर तापमान कम कर देते है, जिससे वायरस शरीर मे घर बना लेता है और 4-6 महीने में बड़े रोग के रूप में आता है,  सूजन आपकी दोस्त है जैसे ही आपको कोई चोट लगी, दर्द हॉगा, कुछ घण्टे के बाद सूजन आ जायेगी, दरअसल चोट लगने के बाद उस स्थान पर रक्त रूकने लगता है, तो दिमाग शरीर को सिग्नल भेजता है, जिससे चोट वाले स्थान पर सूजन आ जाती है, सूजन आती ही इसीलिये है, की शरीर वहां पर पानी की मात्रा को बढा देता है, जिससे रक्त ना जमे, और तरल होकर रक्त निकल जाए, शरीर तो अपना काम कर रहा था,  लेकिन आप जैसे ही गोली

दुर्गा सप्तशती पाठ 2 द्वितीय अध्याय || by geetapress gorakhpur ||

 ॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥


द्वितीयोऽध्यायः

देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध

॥विनियोगः॥

ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,

शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,

श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

ऊँ मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज,वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है । श्रीमहालक्ष्मीकी प्रसन्नताके लिये मध्यम चरित्र के पाठमें इसका विनियोग है।

॥ध्यानम्॥

ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां

दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।

शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां

सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥

मैं कमलके आसनपर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ, जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढ़ाल, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं ।

"ॐ ह्रीं"

ऋषिरुवाच॥१॥

देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।

महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।

जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥

ऋषि कहते हैं- ॥१॥

पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर संग्राम हुआ था । उसमें असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के नायक इन्द्र थे । उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी । सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा ॥२ - ३॥

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।

पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥

तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शंकर और विष्णु विराजमान थे ॥४॥

यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।

त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥

देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजयका यथावत् वृतान्त उन दोनों देवेश्वरों से विस्तार पूर्वक कह सुनाया ॥५॥

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।

अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥

वे बोले- ‘भगवन्! महिषासुर सुर्य , इन्द्र , अग्नि , वायु , चन्द्रमा , यम , वरुण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है ॥६॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।

विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥

उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भाँति पृथ्वीपर विचरते हैं ॥७॥

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।

शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥

दैत्यों की यह सारी करतूत हमने आपलोगों से कह सुनायी। अब हम आपकी शरण में आये हैं । उसके वध का कोई उपाय सोचिये ’ ॥८॥

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।

चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥

इस प्रकार देवताओं के वचन सुनकर भगवान् विष्णु और शिव ने दैत्यों पर बड़ा क्रोध किया । उनकी भौंहे तन गयीं और मुँह टेढ़ा हो गया ॥९॥

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।

निश्चिक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।

निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥

तब अत्यन्त कोप में भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णु के मुख से एक महान् तेज प्रकट हुआ । इसी प्रकार ब्रह्मा , शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला । वह सब मिलकर एक हो गया ॥१० - ११॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।

ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥१२॥

महान् तेज का वह पुंज जाज्वल्यमान पर्वत-सा जान पड़ा । देवताओं ने देखा, वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं ॥१२॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।

एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥

सम्पूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी । एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा ॥१३॥

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।

याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥

भगवान् शंकर का जो तेज था , उससे उस देवी का मुख प्रकट हुआ । यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये । श्रीविष्णुभगवान् के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं ॥१४॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।

वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥

चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और इन्द्र के तेज से मध्यभाग (कटिप्रदेश ) - का प्रादुर्भाव हुआ । वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्बभाग प्रकट हुआ ॥१५॥

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्‌गुल्योऽर्कतेजसा।

वसूनां च कराङ्‌गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥

ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सुर्य के तेज से उसकी अँगुलियाँ हुईं । वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई ॥१६॥

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।

नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥

उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए थे ॥१७॥

भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।

अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥

उसकी भौंहे संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे । इसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ ॥१८॥

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।

तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः*॥१९॥

तदन्तर समस्त देवताओं के तेज:पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर महिषासुर के सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए ॥१९॥

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।

चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य* स्वचक्रतः॥२०॥

पिनाकधारी भगवान् शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें दिया ; फिर भगवान् विष्णु ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके भगवती को अर्पण किया ॥२०॥

शङ्‌खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।

मारुतो दत्तवांश्चारपं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥

वरुण ने भी शंख भेंट किया , अग्नि ने उन्हें शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकस प्रदान किये॥२१॥

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य* कुलिशादमराधिपः।

ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥

सह्स्त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया॥२२॥

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।

प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥

यमराज ने काल दण्ड से दण्ड, वरुण ने पाश , प्रजापति ने स्फटिकाक्ष की माला तथा ब्रह्माजी ने कमण्डलु भेंट किया ॥२३॥

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।

कालश्च दत्तवान् खड्‌गं तस्याश्चर्म* च निर्मलम्॥२४॥

सुर्य ने देवीके समस्त रोम-कूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया । काल ने उन्हें चमकती हुई ढ़ाल और तलवार दी ॥२४॥

क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।

चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।

नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥

अङ्‌गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्‌गुलीषु च।

विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥

क्षीरसमुद्रने उज्ज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये ।साथ ही उन्होंने दिव्य चूड़ामाणि , दो कुण्डल , कड़े , उज्ज्वल अर्धचन्द्र , सब बाहुओं के लिये केयुर , दोनों चरणों के लिये नूपुर , गले की सुन्दर हँसली और सब अँगुलियों में पहनने के लिये रत्नों की बनी अँगूठियाँ भी दीं । विश्वकर्मा ने उन्हें अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया ॥२५ - २७॥

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।

अम्लानपङ्‌कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥

साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिये ; इनके सिवा मस्तक और वक्ष:स्थल पर धारण करने के लिये कभी न कुम्हलाने वाले कमलों की मालाएँ दीं ॥२८॥

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्‌कजं चातिशोभनम्।

हिमवा‍न् वाहनं सिंहं रत्नाचनि विविधानि च॥२९॥

जलधि ने उन्हें सुन्दर कमल का फूल भेंट किया । हिमालय ने सवारीके लिये सिंह तथा भाँति-भाँति के रत्न समर्पित किये ॥२९॥

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।

शेषश्चन सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥

अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।

तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥३२॥

धनाध्यक्ष कुबेर ने मधु से भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने , जो इस पृथ्वी को धारण करते हैं , उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवी का सम्मान किया । तत्पश्चात् उन्होंने बारम्बार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वर से गर्जनाकी । उनके भयंकर नादसे सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा ॥३०-३२॥

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।

चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च् चकम्पिरे॥३३॥

देवी का वह अत्यन्त उच्चस्वर से किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका , आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा । उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई , जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे ॥३३॥

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्चद महीधराः।

जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्*॥३४॥

पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे । उस समय देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ सिंहवाहिनी भवानी से कहा- ‘देवि ! तुम्हारी जय हो ’ ॥३४॥

तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।

दृष्ट्‌वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।

आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥३६॥

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।

स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥

सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त सेना को कवच आदि से सुसज्जित कर , हाथों में हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये । उस समय महिषासुर ने बड़े क्रोधमें आकर कहा- ‘ आ: ! यह क्या हो रहा है ? ’ फिर वह सम्पूर्ण असुरों से घिरकर उस सिंहनाद की ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवी को देखा , जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं ॥३५- ३७॥

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।

क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥

साथ ही महर्षियोंने भक्तिभावसे विनम्र होकर उनका स्तवन किया । उनके चरणों के भारसे पृथ्वी दबी जा रही थी । माथे के मुकुट से आकाश में रेखा- सी खींच रही थी तथा वे अपने धनुष की टंकारसे सातों पातालों को क्षुब्ध किये देती थीं ॥३८॥

दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।

ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥

देवी अपनी हजारों भुजाओं से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके खड़ी थीं । तदनन्तर उनके साथ दैत्यों का युद्ध छिड़ गया ॥३९॥

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।

महिषासुरसेनानीश्चिधक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥

नाना प्रकार के अस्त्र - शस्त्रों के प्रहार से सम्पूर्ण दिशाएँ उद्भासित होने लगीं । चिक्षुर नामक महान् असुर महिषासुर का सेनानायक था ॥४०॥

युयुधे चामरश्चान्यैश्चुतुरङ्‌गबलान्वितः।

रथानामयुतैः षड्‌भिरुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥

वह देवीके साथ युद्ध करने लगा । अन्य दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा । साठ हजार रथियोंके साथ आकर उदग्र नामक महादैत्य ने लोहा लिया ॥४१॥

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।

पञ्चाशद्‌भिश्च् नियुतैरसिलोमा महासुरः॥४२॥

एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा । जिसके रोएँ तलवार के समान तीखे थे , वह असिलोमा नामका महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा ॥४२॥

अयुतानां शतैः षड्‌भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।

गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः* परिवारितः*॥४३॥

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।

बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः*।

अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः

कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।

तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥

युयुधुः संयुगे देव्या खड्‌गैः परशुपट्टिशैः।

केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥

साठ लाख रथियों से घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमि में लड़ने लगा । परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार और घुड़सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा । बिडाल नामक दैत्य पाँच अरब रथियोंसे घिरकर लोहा लेने लगा । इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य रथ , हाथी और घोड़ों की सेना साथ लेकर वहाँ देवी के साथ युद्ध करने लगे । स्वयं महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ , हाथी और घोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था । वे दैत्य देवी के साथ तोमर , भिन्दिपाल , शक्ति , मूसल , खड्ग , परशु और पट्टिश आदि अस्त्र - शस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे । कुछ दैत्यों ने उनपर शक्ति का प्रहार किया , कुछ लोगों ने पाश फेंके ॥४३- ४८॥

देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।

सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।

अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी।

सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी॥५१॥

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।

निःश्वारसान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।

युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥

तथा कुछ दूसरे दैत्यों ने खड्ग प्रहार करके देवी को मार डालने का उद्योग किया । देवी ने भी क्रोध में भरकर खेल - खेल में ही अपने अस्त्र - शस्त्रों की वर्षा करके दैत्यों के वे समस्त अस्त्र - शस्त्र काट डाले । उनके मुखपर परिश्रम या थकावट का रंचमात्र भी चिह्न नहीं था , देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्यों के शरीरों पर अस्त्र - शस्त्रों की वर्षा करती रहीं । देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में इस प्रकार विचरने लगा, मानो वनों में दावानल फैल रहा हो । रणभूमि में दैत्यों के साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने नि:श्वास छोड़े , वे सभी तत्काल सैकड़ों - हजारों गणों के रूपमें प्रकट हो गये और परशु , भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों द्वारा असुरों का सामना करने लगे ॥४९ - ५३॥

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः।

अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्‌खांस्तथापरे॥५४॥

देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा और शंख आदि बाजे बजाने लगे ॥५४॥

मृदङ्‌गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।

ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः*॥५५॥

खड्‌गादिभिश्चय शतशो निजघान महासुरान्।

पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥५६॥

उस संग्राम- महोत्सव में कितने ही गण मृदंग बजा रहे थे । तदनन्तर देवी ने त्रिशूल से , गदा से , शक्ति की वर्षा से और खड्ग आदि से सैकड़ों महादैत्योंका संहार का डाला । कितनों को घण्टे के भयंकर नादसे मूर्च्छित करके मार गिराया ॥५५ - ५६॥

असुरान् भुवि पाशेन बद्‌ध्वा चान्यानकर्षयत्।

केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्‌गपातैस्तथापरे॥५७॥

बहुतेरे दैत्यों को पाश से बाँधकर धरतीपर घसीटा । कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवार की मार से दो-दो टुकड़े हो गये ॥५७॥

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।

वेमुश्चा केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।

निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥

कितने ही गदा की चोट से घायल हो धरती पर सो गये । कितने ही मूसल की मार से अत्यन्त आहत होकर रक्त वमन करने लगे । कुछ दैत्य शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वीपर ढ़ेर हो गये । उस रणांगण में बाणसमूहों की वृष्टि से कितने ही असुरों की कमर टूट गयी ॥५८- ५९॥

श्ये*नानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।

केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।

विच्छिन्नजङ्‌घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।

छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधा: ।

ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिता: ॥६३॥

बाजकी तरह झपटनेवाले देवपीड़क दैत्यगण अपने प्राणों से हाथ धोने लगे । किन्हीं की बाँहें छिन्न-भिन्न हो गयीं । कितनों की गर्दनें कट गयीं । कितने ही दैत्यों के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे । कुछ लोगों के शरीर मध्यभाग में ही विदीर्ण हो गये । कितने ही महादैत्य जाँघें कट जाने से पृथ्वीपर गिर पड़े । कितनों को ही देवी ने एक बाँह , एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ों में चीर डाला । कितने ही दैत्य मस्तक कट जाने पर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़ के ही रूप में अच्छे-अच्छे हथियार हाथ में ले देवी के साथ युद्ध करने लगते थे । दूसरे कबन्ध युद्ध के बाजों की लयपर लयपर नाचते थे ॥६०- ६३॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसि: खड्गशक्त्यृष्टिपाणय:।

तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुरा:*॥६४॥

पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा ।

अगम्या साभवतत्र यत्राभूत्स महारण:॥६५॥

कितने ही बिना सिर के धड़- हाथों में खड्ग , शक्ति और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरे - दूसरे महादैत्य 'ठहरो ! ठहरो !! ' यह कहते हुए देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे । जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहाँ की धरती देवी के गिराये हुए रथ , हाथी , घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था ॥६४- ६५॥

शोणीतौघा महानद्य: सद्यस्तत्र प्रसुस्त्रुवु:।

मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥

दैत्यों की सेना में हाथी ,घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ था कि थोड़ी देर में वहाँ खून की बड़ी - बड़ी नदियाँ बहने लगीं ॥६६॥

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका ।

निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६७॥

जगदम्बा ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया- ठीक उसी तरह , जैसे तृण और काठ के भारी ढ़ेर को आग कुछ ही क्षणोंमें भस्म कर देती है ॥६७॥

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।

शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥६८॥

और वह सिंह भी गर्दनके बालोंको हिला-हिलाकर जोर-जोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीर से मानो उनके प्राण चुन लेता था ॥६८॥

देव्या गणैश्चर तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।

यथैषां* तुतुषुर्देवाः* पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥

वहाँ देवी के गणों ने भी उन महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया , जिससे आकाश में खड़े हुए देवतागण उनपर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे ॥६९॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये

महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥

उवाच १, श्लोकाः ६८, एवम् ६९,

एवमादितः॥१७३॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमहात्म्यमें 'महिषासुरकी सेनाका वध' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥

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