॥ श्री दुर्गा सप्तशती ॥
अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्
विनियोग
ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वार अधि श्रियोऽधित॥१॥
महत्तत्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत् के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेषरूप से देखती है और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं ॥१॥
ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः॥२॥
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलानेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़नेवाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं ; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं ॥२॥
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः॥३॥
परा विच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहन ब्रह्माविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वत: नष्ट हो जाता है॥३॥
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः॥४॥
वे रात्रिदेवी इस समय मुझपर प्रसन्न हों, जिनके आनेपर हमलोग अपने घरों में सुखसे सोते हैं – ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं ॥४॥
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥५॥
उस करूणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलनेवाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं ॥५॥
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव॥६॥
हे रात्रिमयी चिच्छक्ति ! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो । काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ । तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ –मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ ॥६॥
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय॥७॥
हे उषा ! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी ! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अंधकार मेरे निकट आ पहुँचा है । तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो – जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो ॥७॥
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥८॥
हे रात्रिदेवी ! तुम दूध देनेवाली गौके समान हो । मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ । परम व्योमस्वरूप परमात्मा की पुत्री ! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे हविष्य को भी ग्रहण करो ॥८॥
॥ इति ऋग्वेदोक्तं रात्रिसूक्तं समाप्तं॥
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box